हरितालिका तीज व्रत कथा ( Hartalika Teej Vrat Katha ) :
|| हरितालिका तीज पूजन सामग्री ||
केला, केला स्तम्भ , दूध , सुहाग , पिटारी, गंगाजल , दही , तरकी ,चूड़ी , चावल , घी , बिछिया , फूलहार , शक्कर , कंघा , मृत्तिका , शहद , शीशा , चन्दन , केशर , दीपक , फल, पान, धूप , कपूर , सुपारी , पकवान , यज्ञोपवीत , मिठाई इत्यादि |
|| हरितालिका तीज व्रत कब और क्यों ||
हरितालिका तीज का व्रत भादों के शुक्लपक्ष में तृतीया को किया जाता है | तृतीया तिथि को किये जाने के कारन इसे तीजों नाम से जाना जाता है | कुंवारी कन्याएँ इच्छित वर पाने की आशा से और सुहागन सुहाग की रखा के लिए हरितालिका तीज व्रत करती हैं |
|| हरितालिका तीज व्रत कथा ||
जिनके दिव्य केशों पर मंदार के पुष्पों की माला शोभा देती है और जिन भगवन शंकर के मस्तक पर चंद्र और कंठ में मुंडो की माला पड़ी हुई है, जो माता पार्वती दिव्य वस्त्रो से तथा भगवान शंकर दिगंबर वेष धारण किए हैं , उन दोनों भवानी शंकर को नमस्कार करता हूँ |
कैलाश पर्वत के सुन्दर शिखर पर माता पार्वती जी ने श्री महादेव जी से पूछा हे - महेश्वर ! मुझ से आप वह गुप्त से गुप्त वार्ता कहिये जो सबके लिए सब धर्मों से भी सरल तथा महान फल देने वाली हो | हे नाथ ! यदि आप भलीभांति प्रस्सन है तो आप उसे मेरे सामने प्रकट कीजिये | हे जगत नाथ ! आप आदि, मध्य और अंत रहित हैं|
आपकी माया का कोई पार नहीं है | आपको मैंने किस भाँति प्राप्त किया है ? कौन से व्रत, तप या दान के पुण्य फल से आप मुझको वर रूप में मिले ?
श्री महादेव जी बोले - हे देवी ! यह सुन, मैं तेरे सम्मुख उस व्रत को कहता हूँ , जो परम गुप्त है, जैसे तारागणों में चन्द्रमा और ग्रहों में सूर्य , देवताओं में गंगा, वेदों में साम और इंद्रियों में मन श्रेष्ठ है | वैसे ही पुराण और वेद सबमें इसका वर्णन आया है| जिसके प्रभाव से तुमको मेरा आधा आसान प्राप्त हुआ है |
हे प्रिये ! उसी का में वर्णन करता हूँ सुनो - भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की हस्त नक्षत्र संयुक्त तृतीया के दिन इस व्रत का अनुष्ठान मात्र से सब पापों का नाश हो जाता है | तुमने हिमालय पर्वत पर इसी प्रकार का व्रत किया था , जो मैं तुम्हें सुनाता हूँ |
शंकर जी बोले आर्यावर्त में हिमालय नामक एक महान पर्वत है , जो गंगा की कल कल ध्वनि से शब्दायवान रहता है| हे पार्वती ! तुमने बाल्यकाल में उसी स्थान पर परम तप किया था | तुमने ग्रीष्म काल में बाहर चट्टानों पर आसन लगा के तप किया | वर्षा काल में पानी में तप किया | शीत काल में पानी में खड़े होकर मेरे ध्यान में सलग्न रहीं , इस प्रकार छः कालों में तपस्या करके भी जब मेरे दर्शन न मिले तब तुमने ऊर्ध्वमुख होकर केवल वायुसेवन की , फिर वृक्षों के शुके पत्ते खाकर इस शरीर को कमजोर किया |
तुम्हारे इस कष्ट को देखकर तुम्हारे पिता को बड़ी चिंता हुई और चिंतातुर होकर सोचने लगे कि मैं इस कन्या की किससे शादी करूँ | इसी समय महर्षि नारद उपस्थित हुए | राजा ने हर्ष के साथ नारद जी का स्वागत किया और उपस्थित होने का कारण बताने को कहा |
नारदजी ने कहा , राजन मैं भगवान् विष्णु का भेजा आया हूँ | मैं चाहता हूँ की आपकी सुन्दर कन्या को योग्य वर प्राप्त हो , बैकुंठ निवासी शेषशायी भगवान् ने आप की कन्या का वरण स्वीकार किया है | राजा हिमांचल ने कहा , मेरा सौभाग्य है जो मेरी कन्या को विष्णु जी ने स्वीकार किया है और में अवश्य ही उन्हें अपनी कन्या का वरदान करूँगा | यह सुनिश्चित हो जाने पर नारदजी बैकुंठ पहुंचकर श्री विष्णु भगवान् से पार्वती जी के विवाह का निश्चित होना सुनाया | इधर महाराज हिमांचल ने वन में पहुंचकर पार्वती जी से भगवान् विष्णु से विविआह निश्चित होने का समाचार दिया , ऐसा सुनते ही पार्वतीजी को बहुत दुःख हुआ | पार्वती जी दुखित होकर अपनी सखी के पास पहुंचकर विलाप करने लगी | विलाप देख कर सखी ने पार्वतीजी की इच्छा जानकार कहा, देवी मैं तुम्हे ऐसी गुफा में तपस्या को ले चलूंगी जहाँ तुम्हे महाराजा हिमांचल भी न ढूंढ सकेंगे , ऐसा कह उमा सहेली सहित हिमालय की गहन गुफा में विलीन हो गई |
तब पिता हिमवान ने तुमको घर पर न पाकर सोचा की मेरी पुत्री को कोई दानव या किन्नर हरण करके ले गया है | मैंने नारदजी को वचन दिया था की मैं पुत्री का विवाह विष्णु जी के साथ करूँगा | हाय अब ये कैसे पूरा होगा ? ऐसा सोचकर चिंतावश मूर्छित हो गए | मूर्छा दूर होने के पश्चात् गिरिराज साथियों सहित घने जंगल में ढूढ़ने निकले | इसी दौरान गुफा में पार्वती जी अन्न जल त्याग कर बालू का लिंग बनाकर मेरी आराधना करती रहीं | उस समय पर भद्रपद मॉस की हस्त नक्षत्र युक्त तृतीया के दिन तुमने मेरा विधि विधान से पूजन किया तथा रात्रि को गीत गायन करते हुए जागरण किया | तुम्हारे उस महाव्रत के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा | मैं उसी स्थान पर आ गया , जहाँ तुम और तुम्हारी सखी दोनों थी | मैंने आकर तुमसे कहा मैं प्रसन्न हूँ | तब तुमने कहा की हे देव , यदि आप मुझसे प्रसन्न है तो आप महादेवजी ही मेरे पति हों | मैं तथास्तु कहकर कैलाश को आ गया | तुमने प्रभात होते ही मेरी उस बालू की प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर दिया | हे शुभे , तुमने वहां अपनी सखी सहित व्रत का परायण किया | इतने में तुम्हारे पिता हिमवान भी नदी तट पर आ पहुंचे और तुम्हे लगे लगा कर रोने लगे और बोले - बेटी तुम इस सिंह व्याघ्रदि युक्त जंगल में क्यों चली आई ? तुमने कहा हे पिता , मैंने पहले ही अपना शरीर शंकरजी को समर्पित कर दिया है किन्तु आपने इसके विपरीत कार्य किया इसलिए मैं वन को चली आई |
ऐसा सुनकर हिमवान ने तुमसे कहा की मैं तुम्हारी इक्छा के विरुद्ध यह कार्य नहीं करूँगा और तुम्हारा विवाह मेरे साथ कर दिया | हे प्रिये ! उसी व्रत के प्रभाव से तुमको मेरा अर्धासन प्राप्त हुआ है |
हे देवी ! अब मैं तुम्हे बताता हूँ की इस व्रत का नाम हरितालिका क्यों पड़ा |
तुमको सखी हरण करके ले गयी थी , इसलिए हरतालिका नाम पड़ा | पार्वतीजी बोली हे स्वामी ! आपने इस व्रतराज का नाम जो की हरितालिका तीज है तोह बता दिया किन्तु मुझे इस व्रत हरितालिका की विधि और फल भी बताइये |
तुम्हारे इस कष्ट को देखकर तुम्हारे पिता को बड़ी चिंता हुई और चिंतातुर होकर सोचने लगे कि मैं इस कन्या की किससे शादी करूँ | इसी समय महर्षि नारद उपस्थित हुए | राजा ने हर्ष के साथ नारद जी का स्वागत किया और उपस्थित होने का कारण बताने को कहा |
नारदजी ने कहा , राजन मैं भगवान् विष्णु का भेजा आया हूँ | मैं चाहता हूँ की आपकी सुन्दर कन्या को योग्य वर प्राप्त हो , बैकुंठ निवासी शेषशायी भगवान् ने आप की कन्या का वरण स्वीकार किया है | राजा हिमांचल ने कहा , मेरा सौभाग्य है जो मेरी कन्या को विष्णु जी ने स्वीकार किया है और में अवश्य ही उन्हें अपनी कन्या का वरदान करूँगा | यह सुनिश्चित हो जाने पर नारदजी बैकुंठ पहुंचकर श्री विष्णु भगवान् से पार्वती जी के विवाह का निश्चित होना सुनाया | इधर महाराज हिमांचल ने वन में पहुंचकर पार्वती जी से भगवान् विष्णु से विविआह निश्चित होने का समाचार दिया , ऐसा सुनते ही पार्वतीजी को बहुत दुःख हुआ | पार्वती जी दुखित होकर अपनी सखी के पास पहुंचकर विलाप करने लगी | विलाप देख कर सखी ने पार्वतीजी की इच्छा जानकार कहा, देवी मैं तुम्हे ऐसी गुफा में तपस्या को ले चलूंगी जहाँ तुम्हे महाराजा हिमांचल भी न ढूंढ सकेंगे , ऐसा कह उमा सहेली सहित हिमालय की गहन गुफा में विलीन हो गई |
तब पिता हिमवान ने तुमको घर पर न पाकर सोचा की मेरी पुत्री को कोई दानव या किन्नर हरण करके ले गया है | मैंने नारदजी को वचन दिया था की मैं पुत्री का विवाह विष्णु जी के साथ करूँगा | हाय अब ये कैसे पूरा होगा ? ऐसा सोचकर चिंतावश मूर्छित हो गए | मूर्छा दूर होने के पश्चात् गिरिराज साथियों सहित घने जंगल में ढूढ़ने निकले | इसी दौरान गुफा में पार्वती जी अन्न जल त्याग कर बालू का लिंग बनाकर मेरी आराधना करती रहीं | उस समय पर भद्रपद मॉस की हस्त नक्षत्र युक्त तृतीया के दिन तुमने मेरा विधि विधान से पूजन किया तथा रात्रि को गीत गायन करते हुए जागरण किया | तुम्हारे उस महाव्रत के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा | मैं उसी स्थान पर आ गया , जहाँ तुम और तुम्हारी सखी दोनों थी | मैंने आकर तुमसे कहा मैं प्रसन्न हूँ | तब तुमने कहा की हे देव , यदि आप मुझसे प्रसन्न है तो आप महादेवजी ही मेरे पति हों | मैं तथास्तु कहकर कैलाश को आ गया | तुमने प्रभात होते ही मेरी उस बालू की प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर दिया | हे शुभे , तुमने वहां अपनी सखी सहित व्रत का परायण किया | इतने में तुम्हारे पिता हिमवान भी नदी तट पर आ पहुंचे और तुम्हे लगे लगा कर रोने लगे और बोले - बेटी तुम इस सिंह व्याघ्रदि युक्त जंगल में क्यों चली आई ? तुमने कहा हे पिता , मैंने पहले ही अपना शरीर शंकरजी को समर्पित कर दिया है किन्तु आपने इसके विपरीत कार्य किया इसलिए मैं वन को चली आई |
ऐसा सुनकर हिमवान ने तुमसे कहा की मैं तुम्हारी इक्छा के विरुद्ध यह कार्य नहीं करूँगा और तुम्हारा विवाह मेरे साथ कर दिया | हे प्रिये ! उसी व्रत के प्रभाव से तुमको मेरा अर्धासन प्राप्त हुआ है |
हे देवी ! अब मैं तुम्हे बताता हूँ की इस व्रत का नाम हरितालिका क्यों पड़ा |
तुमको सखी हरण करके ले गयी थी , इसलिए हरतालिका नाम पड़ा | पार्वतीजी बोली हे स्वामी ! आपने इस व्रतराज का नाम जो की हरितालिका तीज है तोह बता दिया किन्तु मुझे इस व्रत हरितालिका की विधि और फल भी बताइये |
|| हरितालिका तीज व्रत की विधि और फल ||
तब भगवान् शंकर जी बोले इस स्त्री जाती के अतिउत्तम व्रत हरितालिका की विधि सुनिए | सौभाग्य की इक्छा रखने वाली स्त्रियां इस व्रत को विधिपूर्वक करें | केले के स्तम्भों से मंडप बनाकर उसे वन्डरवारो से सुशोभित करें | शंख , भेरी , मृदंग आदि बजावे | विधि पूर्वक मंगलचार करके श्री गौरी शंकर की बालू निर्मित प्रतिमा स्थापित करें | फिर भगवान् शिव पार्वती की गंध , धुप , पुष्प आदि से पूजा करें | अनेको नैवेद्यों का भोग लगावें और रात्रि को जागरण करें | पूजन करने के पश्चात प्राथना करें - हे कल्याण स्वरुप शिव ! हे मंगलरूप शिव ! तुम्हे नमस्कार | हे सिंहवाहिनी मैं सांसारिक भय से व्याकुल हूँ मेरी रक्षा करो | हे माँ पार्वती आप मेरे ऊपर प्रसन्न होकर मुझे सुख और सौभाग्य प्रदान करो | इस प्रकार हरतालिका व्रत को करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं |
|| इति श्री हरितालिका व्रत कथा ||
4 टिप्पणियाँ
Jai Shiv Parvati apne bhakto pe kripa banaye rakhe......Hartalika teej saubhagya dene wala vrat hai
जवाब देंहटाएंharitalika teej vrat vivahit aur avivahit kanya sabhi rakh sakte hai| mata parvatiji sab par kripa karen. nice post
जवाब देंहटाएंSir, aapne Jo jankari geez vrat ke liye di hai uske liye aapko dhanyawaad.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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